बिहार की तरक्की में सबसे बड़ी बाधा है कार्यपालिका और विधायिका का imbalance और एक व्यक्तिवाद
लोकतंत्र में इस संतुलन के बिना सफलता संभव नहीं
जब लालू जी का वक्त था तब राजनैतिक कार्यकर्ता कार्यपालिका पर पूरी तरीके से हावी थे.
नीतीश जी के टाइम पर विधायिका पद दलित है.
इसका कारण है visionless नेता
हमारे यहां नेतागिरी: पैरवी पकारी की नेतागिरी हैं
जब तक कोई कार्यकर्ता नेता बनता है तब तक वो नैतिक रूप से खत्म होता हैं, और फिर ज़िन्दगी भर उसी दलाली में रह जाता है
अधिकारी के सामने उसकी ज़बान नहीं खुल पाती क्योंकि वो बौद्धिक तौर पे अधिकारी को अपने से उपर मान लेता हैं
Visionless होने के वजह से अधिकारी उनकी इज्जत नहीं करते
नेता हमारे subject matter specialist भी नहीं होते हैं, जिसकी वजह से उनकी अधिकारियों पर dependability बढ़ जाती है.
गलती जनता की भी है अगर आप किसी एक व्यक्ति के नाम पर वोट देंगे तो वह व्यक्ति सर्वशक्तिमान हो जाएगा, अपने नाम पर जैसे तैसे लोगों को चुनाव जिताएगा, तथा सारी शक्ति उस पर केंद्रित हो जाएगी.
बिहार के साथ यही हुआ.
किसी भी संस्था या देश में यह सारी परिस्थितियां उचित नहीं
और बिहार में तो यह सब जगह व्याप्त है चाहे संस्थाएं हो या सरकार.